पुस्तक– भ्रष्टाचार की चुनौती
संपादक– राजकिशोर
मूल्य– 200
पृष्ठों की संख्या – 164
एक समय था जब भ्रष्टाचार एक मात्र समस्या भर थी लेकिन अब इसने अपना पैर फैलाते हुए समाज के प्रत्येक क्षेत्र में पंहुच बना ली है। अब यह चुनौती है। एक ऐसी चुनौती जिसे जड़ से समाप्त तो नही किया जा सकता लेकिन कम करने का प्रयास जरूर किया जा सकता है, जो कि होते दिखाई नहीं दे रही है। बल्कि आजादी के बाद इसने जिस गति से स्ट्राइक रेट बढ़ाया है वह गौरतलब है।
‘भ्रष्टाचार की चुनौती’ नामक यह पुस्तक इसी गति की ओर बहुत ही विस्तार से बात करती है।
किताब की शुरआत ‘भ्रष्टाचार की नई संस्कृति’ टॉपिक से लेकर अंत ‘भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए’ टॉपिक तक है।इसके बीच में 15 टॉपिक और हैं, जो कि भारत में भ्रष्टाचार के बढ़ने, फलने–फूलने और इसमें ‘सिस्टम’ के जबरदस्त योगदान का जिक्र करते हैं। यानी इस किताब में 17 चैप्टर या लेख हैं जिसको 17 अलग–अलग लेखकों ने लिखा है।
दरअसल इस किताब में भ्रष्टाचार के हर पहलू बात पर की गई है। आजादी से पूर्व इसकी क्या स्थिति थी, आजादी के बाद इसकी क्या स्थिति रही। प्राचीन काल का भी उदाहरण दिया गया है। जैसे चाणक्य के समय का उदाहरण। कालिदास के उपन्यास अभिज्ञानशाकुन्तलम में भी ‘उत्कोच’ की बात की गई है। उस समय छोटा–मोटा काम निकलवाने के लिए पैसे देकर काम कराया जात था। लेकिन अंग्रेजों ने जो आकर तहस– नहस किया वह आज भी चला आ रहा है।अंग्रेजों ने नैतिकता के सारे मापदंड तोड़ कर भ्रष्टाचार का एक नया ही प्रतिमान स्थापित कर किया। तभी तो भारत अभी ठीक से आजादी की खुशियों में सराबोर भी नही हुआ था कि वी. के. कृष्ण मेनन के ऊपर दलाली का पहला मामला सामने आया।‘कुछ बहुचर्चित कांड’ लेख के लेखक गोविंद सिंह ने बहुत ही विस्तार से कुछ घोटालों को उजगार किया है।
इस पुस्तक में दुनिया में स्थापित सभी व्यवस्थाओं में भ्रष्टाचार की स्थिति और रवैये पर भी बात की गई है। जैसे पूंजीवादी, साम्यवादी और लोकतांत्रिक व्यवस्था में कैसे और किस तरह से भ्रष्टचार ने अपना पैर पसारा है। भारत में भ्रष्टाचार की स्थिति तो भयावह है। इसको समझाने के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित विख्यात अर्थशास्त्री, स्वीडन के गुन्नार मिर्दाल की किताब ‘द एशियन ड्रामा’ का भी जिक्र किया गया है। गुन्नार मिर्दाल ने भारत में भ्रष्टाचार बढ़ने और पनपने के चार कारण मानते है। पहला यह कि देशवासी किसके प्रति प्रतिबद्ध हैं, समाज के प्रति, देश के प्रति या परिवार के प्रति। दूसरा कारण सॉफ्ट स्टेट यानी ढुलमुल कानून, तीसरा कारण है सरकार के विभिन्न स्तरों पर,खास तौर पर निचले स्तरों पर, विवेकाधीन ऐच्छिक अधिकार और चौथा कारण कर्मचारियों के कम वेतनमानों को मानते हैं।
अरुण कुमार त्रिपाठी ने ‘मीडिया की चांदनी में’ लेख लिखकर बताया है कि मीडिया की भी अपनी सीमाएं है। वह केवल चांद के उस प्रकाश की तरह काम करेगा जिसमे की चोर पकड़ा जा सके। इस पुस्तक में मीडिया को भूमिका के बारे में भी विस्तार से बात की गई है।
सबसे महत्वपूर्ण यह कि आज़ादी के बाद जितनी भी सरकारें रहीं वह भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई बड़ा कदम नहीं उठा सकी, जिससे कि एक आदर्श प्रतिमान स्थापित हो सके। हालांकि वी.पी. सिंह ने माहौल बनाया था लेकिन वह भी कुछ कर नही पाये। बीच में गुलजारी लाल नंदा ने सनातंम समिति का गठन किया था लेकिन समिति के रिपोर्ट को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया गया।
किताब का पहला संस्करण 1995 में छपा था। इसलिए घटनाएं और उदाहरण इसके पहले के हैं। भ्रष्टाचार की गति जो कि पहले से ही एक निरंतर वृद्धि की गति पकड़ी हुई थी वह ‘एलपीजी’ लागू(1991) होने के बाद उसने अपनी गति और तेज कर ली इसी दृष्टि से एलपीजी को इस पुस्तक में कड़ी निगाहों से देखा गया है।
भ्रष्टाचार की परिभाषा, संदर्भ, गति, प्रभाव, नुकसान समझना हो तो इस पुस्तक को अपना दोस्त बनाया जा सकता है। यदि आम आदमी के दृष्टि से भ्रष्टाचार की भयावहता के दर्शन करने है तो भी यह पुस्तक आपकी सहायता कर सकती है।
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